Thursday, August 5, 2010

भूदानी झोला

आज ०६.०८.२०१० दिन शुक्रवार को मैं जनता दल कार्यालय आया. मेरे भाई काशीनाथ से चर्चा के बाद में अपना ब्लॉग का नाम बदल कर नए सिरे से ब्लॉग की दुनिया आ रहा हूँ। इस बार मेरे ब्लॉग का नाम भूदानी झोला है। इस नए ब्लॉग में लोग पढेंगे और अपनी राय भी देंगे ये उम्मीद करता हूँ। अभी मैं अपने बेटे बंटी (घर का नाम ) निखिलेश अग्रवाल के पास से (मोंट्रियल) से लौटा। दो देश की तुलना करने पर लगा की हम अभी पीछे हैं। जबकि हम से छोटा और बाद का देश कितना आगे है। हाँ फिर भी लगा की देश को आगे बढाने के लिए कुछ किया जा सकता है। लोहियावादी होने के नाते मैं मानता हूँ की अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। यदि करना शुरू किया जाये तो काम का अंत नहीं है। सबसे ख़राब बात की लोग अब सच बोलने से भी डरते हैं। जो खतरे की घंटी है। लेकिन एक समय ऐसा भी आएगा की सारी व्यवस्था बदलेगी, शायद हम चाहते भी यही हैं। नई पीढ़ी को लगता है की भारत आने से क्या होगा। वो कहते हैं की क्या भारत में हमको ये सब मिल सकता है। उनके तर्क हैं की भारत में क्या है जो वहां जाया जाये। यहाँ की व्यवस्था को दोष तो सब देते हैं, लेकिन इसको बदलने की जोखिम कोई नहीं लेना चाहता। सब चाहते हैं की भगत सिंह तो पैदा हो परन्तु पडोसी के घर में। विदेश गए या जाने को आतुर पीढ़ी को क्या कहें, उनमे भी पैसे को लेकर एक लालच आ गया है। उनको विदेश 'कालीन' जैसा लगता है जिस पर वो बेपरवाह होकर आज़ादी के साथ चहल कदमी कर सकते हैं, भारत में समस्या, धरना, हड़ताल और संघर्ष उनको डरा देते हैं। ये भी कहा जा सकता है की वो सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जीने में ही मस्त रहना चाहते हैं। जिस देश में नहीं आने की बात वो करते हैं उसके बारे में ये नहीं भूलना चाहिए की इसी देश ने उनको इस काबिल बनाया है की विदेश जा सकें। अंत में एक बात साफ़ कह रहा हूँ की, " कालीन पर चलते हुए काँटा चुभने का दर्द बड़ा होता है."

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